जो पूछता है कोई सुर्ख़ क्यूँ हैं आज आँखें
तो आँखें मल के मैं कहता हूँ रात सो न सका
हज़ार चाहूँ मगर ये न कह सकूँगा कभी
कि रात रोने की ख़्वाहिश थी और रो न सका
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आफ़ात-ओ-हवादिस से भरी है दुनिया
फ़िदा-ए-मंज़िल-ए-बे-जादा हैं ख़ुदा रक्खे
वो दिल नहीं रहा वो तबीअत नहीं रही
शोले भड़काओ देखते क्या हो
हरगिज़ नहीं जीने से दिल-ए-ज़ार ख़फ़ा
नश्शा-ए-ख़्वाब में मदहोश है सारी दुनिया
रात को बैठ कर लब-ए-दरिया
सदा कुछ ऐसी मिरे गोश-ए-दिल में आती है
क़ल्ब ज़िंदा है लफ़्ज़ हैं बे-जान
पानी ले सकते हैं दरिया से मगर कूज़े में हम
हुस्न की दास्ताँ बना डाला
बहार-ए-फ़िक्र के जल्वे लुटा दिए हम ने