जिन को है ऐश-ए-दिल मयस्सर, वो
हाए क्या खिल-खिला के हँसते हैं
और हम बे-नसीब ऐ 'अख़्तर'
मुस्कुराने को भी तरसते हैं
Anwar Masood
Gulzar
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Faiz Ahmad Faiz
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गोशा-ए-बाग़ और बज़्म-ए-तरब
सरशार हूँ छलकते हुए जाम की क़सम
एक तस्वीर खींच दी गोया
बातें करने में फूल झड़ते हैं
आता नहीं साँसों में मज़ा पीने का
पानी ले सकते हैं दरिया से मगर कूज़े में हम
बहुत से इशरत-ए-नौ-रोज़-ओ-ईद में हैं मगन
तिरा आसमाँ नावकों का ख़ज़ीना हयात-आफ़रीना हयात-आफ़रीना
रात को बैठ कर लब-ए-दरिया
पढ़ा है मैं ने फ़सानों में जिस तरह 'अख़्तर'
दिन मुरादों के ऐश की रातें
माज़ी की रिवायात में गड़ जाते हैं