जी को नाहक़ निढाल करते हो
रूह को पाएमाल करते हो
आदमी और गुनाह से परहेज़!
तुम भी 'अख़्तर' कमाल करते हो
Parveen Shakir
Allama Iqbal
Mohsin Naqvi
Ahmad Faraz
Javed Akhtar
Habib Jalib
Gulzar
Rahat Indori
Anwar Masood
Mir Taqi Mir
Faiz Ahmad Faiz
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ज़ख़्म खाने के दिन गए लेकिन
रात को बैठ कर लब-ए-दरिया
वो यास कि उम्मीद कि चश्मे फूटें
रगों में दौड़ती हैं बिजलियाँ लहू के एवज़
शोले भड़काओ देखते क्या हो
इस में कोई मिरा शरीक नहीं
गोशा-ए-बाग़ और बज़्म-ए-तरब
सई-ए-राहत हो गई ख़्वाब-ओ-ख़याल
दिन मुरादों के ऐश की रातें
सीना ख़ूँ से भरा हुआ मेरा
इक तीर कलेजे में पिरोया हम ने
हवा थी ठंडी ठंडी चाँदनी थी और दरिया था