इलाही उस को मोहब्बत से कुछ तअल्लुक़ है
जो इस तरह से सुनाता है नग़्मा-ए-रंगीं
जहाँ रुबाब की आवाज़ कान में आई
किसी की याद ने सीने में बिजलियाँ भर दीं
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मोहब्बत करने वालों के बहार-अफ़रोज़ सीनों में
कोई मआल-ए-मोहब्बत मुझे बताओ नहीं
याद-ए-माज़ी अज़ाब है या-रब
दिल के अरमान दिल को छोड़ गए
किसी से लड़ाएँ नज़र और झेलें मोहब्बत के ग़म इतनी फ़ुर्सत कहाँ
सदा कुछ ऐसी मिरे गोश-ए-दिल में आती है
यारों के इख़्लास से पहले दिल का मिरे ये हाल न था
साँसों में लिए कर्ब-ओ-बला जीता हूँ
झूमती है फ़ज़ा-ए-दश्त-ओ-जबल
उन में रहती थी इक हँसी बन कर
दिल-ए-हसरत-ज़दा में एक शोला सा भड़कता है
रात को बैठ कर लब-ए-दरिया