हमेशा जागते ही जागते सहर कर दी
कभी हँसा कभी आहें भरीं कभी रोया
बना के चाँद को अपना गवाह कहता हूँ
मैं आज तक शब-ए-महताब में नहीं सोया
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ये मुलाक़ात लूटे लेती है
कोई रोए तो मैं बे-वजह ख़ुद भी रोने लगता हूँ
बहार-ए-फ़िक्र के जल्वे लुटा दिए हम ने
तिरी नाज़ुक और लाँबी उँगलियाँ
नींद आती है इस तरह शब को
मोहब्बत! ऐ कि तू देवी है ग़म की रोए जा
दिल को बर्बाद किए जाती है
कर दिया हाफ़िज़े में हश्र बपा
एक तस्वीर खींच दी गोया
मुतरिबा जब सदा-ए-साज़ के साथ
क्या ख़ाक करम है जो मुझे तू बख़्शे
उस से पूछे कोई चाहत के मज़े