हाए क्या क़हर थी वो पहली नज़र
जिस में महसूस ये हुआ 'अख़्तर'
मुझ पे गोया किसी ने फेंक दी हैं
एक मुट्ठी में बिजलियाँ भर कर
Ahmad Faraz
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फिरती हूँ लिए सोज़-ए-हयात आँखों में
इस तरह तबीअत कभी शैदा न हुई
सुनने वाले फ़साना तेरा है
यारों के इख़्लास से पहले दिल का मिरे ये हाल न था
तब्अ इशरत-पसंद रखता हूँ
हर वक़्त नौहा-ख़्वाँ सी रहती हैं मेरी आँखें
अपनी उजड़ी हुई दुनिया की कहानी हूँ मैं
ख़िज़ाँ में आग लगाओ बहार के दिन हैं
अपनी बहार पे हँसने वालो कितने चमन ख़ाशाक हुए
रंग ओ बू में डूबे रहते थे हवास
गुलशन-ए-आरज़ू की दीद के ब'अद
बहार-ए-फ़िक्र के जल्वे लुटा दिए हम ने