गोशा-ए-बाग़ और बज़्म-ए-तरब
चाँदनी, हुस्न, शेर और गाने
फिर भी मैं बे-क़रार हूँ 'अख़्तर'
चाहता क्या है दिल ख़ुदा जाने
Allama Iqbal
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सरशार हूँ छलकते हुए जाम की क़सम
हरगिज़ नहीं जीने से दिल-ए-ज़ार ख़फ़ा
कोई जंगल में गा रहा है गीत
इक टीस कलेजे को मसलती ही रही
आफ़तों में घिर गया हूँ ज़ीस्त से बे-ज़ार हूँ
जब से मुँह को लग गई 'अख़्तर' मोहब्बत की शराब
बहार आई ज़माना हुआ ख़राबाती
क़सम इन आँखों की जिन से लहू टपकता है
दिल-ए-हसरत-ज़दा में एक शोला सा भड़कता है
फ़िदा-ए-मंज़िल-ए-बे-जादा हैं ख़ुदा रक्खे
वो दिल नहीं रहा वो तबीअत नहीं रही
रगों में दौड़ती हैं बिजलियाँ लहू के एवज़