गीत के हाथों लुटा जाता हूँ मैं
हाए क्या से क्या हुआ जाता हूँ मैं
मुतरिबा! ऐ मुतरिबा! लेना मुझे
एक अंगड़ाई बना जाता हूँ मैं
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इलाज-ए-'अख़्तर'-ए-ना-काम क्यूँ नहीं मुमकिन
सुब्ह की तनवीर बन कर आई वो नाज़ुक-ख़िराम
नश्शा-ए-ख़्वाब में मदहोश है सारी दुनिया
जी को नाहक़ निढाल करते हो
शोले भड़काओ देखते क्या हो
रंग ओ बू में डूबे रहते थे हवास
हाँ कभी ख़्वाब-ए-इश्क़ देखा था
झूमती है फ़ज़ा-ए-दश्त-ओ-जबल
दिल-ए-हसरत-ज़दा में एक शोला सा भड़कता है
समझता हूँ मैं सब कुछ सिर्फ़ समझाना नहीं आता
मुतरिबा जब सदा-ए-साज़ के साथ
क़ल्ब ज़िंदा है लफ़्ज़ हैं बे-जान