फ़ुग़ान-ए-ग़म सुरूद-ए-अंजुमीं मालूम होती है
तपिश दिल की बहार-ए-यासमीं मालूम होती है
मिरा काफ़िर मज़ाक़-ए-हुस्न अब तुम पूछते क्या हो
मुझे अपनी तबाही भी हसीं मालूम होती है
Ahmad Faraz
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लुत्फ़ ले ले के पिए हैं क़दह-ए-ग़म क्या क्या
तब्अ इशरत-पसंद रखता हूँ
पढ़ा है मैं ने फ़सानों में जिस तरह 'अख़्तर'
तश्कीक ने ईक़ान से महरूम रखा
गीत के हाथों लुटा जाता हूँ मैं
मोहब्बत है अज़िय्यत है हुजूम-ए-यास-ओ-हसरत है
नश्शा-ए-ख़्वाब में मदहोश है सारी दुनिया
इक तीर कलेजे में पिरोया हम ने
ज़ख़्म खाने के दिन गए लेकिन
मोहब्बत! ऐ कि तू देवी है ग़म की रोए जा
अब कहाँ हूँ कहाँ नहीं हूँ मैं