एक सब्र-आज़मा जुदाई है
मिलने-जुलने की बंद हैं राहें
मैं ने उस माह-रू की गर्दन में
डाल दी हैं ख़याल की बाहें
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चर्ख़ की सई-ए-जफ़ा कोशिश नाकारा है
फिरती हूँ लिए सोज़-ए-हयात आँखों में
आरज़ू को रूह में ग़म बन के रहना आ गया
झूमती है फ़ज़ा-ए-दश्त-ओ-जबल
फ़ुग़ान-ए-ग़म सुरूद-ए-अंजुमीं मालूम होती है
मिरी ख़बर तो किसी को नहीं मगर 'अख़्तर'
उजड़ी दुनिया को बसाया है ज़रा देखो तो
हाँ कभी ख़्वाब-ए-इश्क़ देखा था
किस क़यामत के लम्हे थे 'अख़्तर'
जो दाग़ बन के तमन्ना तमाम हो जाए
तश्कीक ने ईक़ान से महरूम रखा
उन में रहती थी इक हँसी बन कर