दिल को बर्बाद किए जाती है
ग़म ब-दस्तूर दिए जाती है
मर चुकीं सारी उमीदें 'अख़्तर'
आरज़ू है कि जिए जाती है
Mir Taqi Mir
Allama Iqbal
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अपनी उजड़ी हुई दुनिया की कहानी हूँ मैं
आरज़ू को रूह में ग़म बन के रहना आ गया
आब-ए-दरिया में है जिस तरह रवानी पिन्हाँ
हयात इंसाँ की सर ता पा ज़बाँ मालूम होती है
किसी से लड़ाएँ नज़र और झेलें मोहब्बत के ग़म इतनी फ़ुर्सत कहाँ
हाए क्या क़हर थी वो पहली नज़र
फ़ज़ा है नूर की बारिश से सीम-गूँ इस वक़्त
लुत्फ़ ले ले के पिए हैं क़दह-ए-ग़म क्या क्या
शोले भड़काओ देखते क्या हो
झूमती है फ़ज़ा-ए-दश्त-ओ-जबल
जाँ-सिपारी के भी अरमाँ ज़िंदगी की आस भी
साँसों में लिए कर्ब-ओ-बला जीता हूँ