बहुत से इशरत-ए-नौ-रोज़-ओ-ईद में हैं मगन
बहुत वो हैं जो फ़रेब-ए-उमीद में हैं मगन
ज़माना मस्त है इंसान का लहू पी कर
हम अपने ख़ून-ए-जिगर की कशीद में हैं मगन
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माज़ी की रिवायात में गड़ जाते हैं
नश्शा-ए-ख़्वाब में मदहोश है सारी दुनिया
इलाज-ए-'अख़्तर'-ए-ना-काम क्यूँ नहीं मुमकिन
जो हो न सका हम से वो कर जाओ तुम
वो यास कि उम्मीद कि चश्मे फूटें
फ़ज़ा है नूर की बारिश से सीम-गूँ इस वक़्त
यारों के इख़्लास से पहले दिल का मिरे ये हाल न था
क़सम इन आँखों की जिन से लहू टपकता है
आफ़ात-ओ-हवादिस से भरी है दुनिया
दिल-ए-फ़सुर्दा में कुछ सोज़ ओ साज़ बाक़ी है
सुब्ह की तनवीर बन कर आई वो नाज़ुक-ख़िराम
है ग़म-ए-रोज़गार का मौज़ूअ