इक टीस कलेजे को मसलती ही रही
इक सोत ख़यालों में उबलती ही रही
तारीक रहा जादा-ए-हस्ती लेकिन
इक शम्अ मिरे सीने में जलती ही रही
Ahmad Faraz
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बहुत से इशरत-ए-नौ-रोज़-ओ-ईद में हैं मगन
दिल-ए-हसरत-ज़दा में एक शोला सा भड़कता है
समझता हूँ मैं सब कुछ सिर्फ़ समझाना नहीं आता
सुब्ह की तनवीर बन कर आई वो नाज़ुक-ख़िराम
फ़ज़ा उमडी हुई है इक छलकते जाम की मानिंद
इस रुपहली शराब-ए-नूरीं से
बहार आई ज़माना हुआ ख़राबाती
दिल-ए-फ़सुर्दा में कुछ सोज़ ओ साज़ बाक़ी है
सुना के अपने ऐश-ए-ताम की रूदाद के टुकड़े
ग़म-ए-हयात कहानी है क़िस्सा-ख़्वाँ हूँ मैं
जो पूछता है कोई सुर्ख़ क्यूँ हैं आज आँखें
मोहब्बत है अज़िय्यत है हुजूम-ए-यास-ओ-हसरत है