ऐ बख़्त! मज़े कुछ तो उठाऊँ मैं भी
लज़्ज़त जो मिटाने में है पाऊँ मैं भी
कुछ तू ने मिलाया मुझे ख़ाक-ओ-ख़ूँ में
कुछ ख़ाक में अब ख़ुद को मिलाऊँ मैं भी
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बहुत से इशरत-ए-नौ-रोज़-ओ-ईद में हैं मगन
कोई जंगल में गा रहा है गीत
तक़दीर-ए-अज़ल आह तो भरती होगी
जी को नाहक़ निढाल करते हो
ग़म-ए-हयात कहानी है क़िस्सा-ख़्वाँ हूँ मैं
इस में कोई मिरा शरीक नहीं
सच तो ये है जहाँ में मेरे ब'अद
एक तस्वीर खींच दी गोया
सुब्ह की तनवीर बन कर आई वो नाज़ुक-ख़िराम
ख़्वाहिश-ए-ऐश नहीं दर्द-ए-निहानी की क़सम
हो के बे-फ़िक्र तान उड़ाए जा
समझता हूँ मैं सब कुछ सिर्फ़ समझाना नहीं आता