शबाब-ए-दर्द मिरी ज़िंदगी की सुब्ह सही
पियूँ शराब यहाँ तक कि शाम हो जाए
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तस्कीन-ए-ग़म-ए-दिल के लिए जीता हूँ
वो माज़ी जो है इक मजमुआ अश्कों और आहों का
दिल-ए-फ़सुर्दा में कुछ सोज़ ओ साज़ बाक़ी है
फ़ज़ा है नूर की बारिश से सीम-गूँ इस वक़्त
सुब्ह की तनवीर बन कर आई वो नाज़ुक-ख़िराम
ज़ख़्म खाने के दिन गए लेकिन
मैं किसी से अपने दिल की बात कह सकता न था
हाए क्या क़हर थी वो पहली नज़र
आईना-ए-निगाह में अक्स-ए-शबाब है
आब-ए-दरिया में है जिस तरह रवानी पिन्हाँ
मिरी ख़बर तो किसी को नहीं मगर 'अख़्तर'
एक तस्वीर खींच दी गोया