मिला के क़तरा-ए-शबनम में रंग ओ निकहत-ए-गुल
कोई शराब बनाओ बहार के दिन हैं
Ahmad Faraz
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Anwar Masood
Wasi Shah
Gulzar
Mir Taqi Mir
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वो यास कि उम्मीद कि चश्मे फूटें
उस से पूछे कोई चाहत के मज़े
जा रहा था मैं सर झुकाए हुए
इधर दिमाग़ हैं साकित दिलों को सकता है
उन में रहती थी इक हँसी बन कर
तश्कीक ने ईक़ान से महरूम रखा
साफ़ ज़ाहिर है निगाहों से कि हम मरते हैं
सदा कुछ ऐसी मिरे गोश-ए-दिल में आती है
किस क़यामत के लम्हे थे 'अख़्तर'
मैं दिल को चीर के रख दूँ ये एक सूरत है
आरज़ू को रूह में ग़म बन के रहना आ गया
इलाही उस को मोहब्बत से कुछ तअल्लुक़ है