इस में कोई मिरा शरीक नहीं
मेरा दुख आह सिर्फ़ मेरा है
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वो दिल नहीं रहा वो तबीअत नहीं रही
ये शीरीं राग मेरे हाफ़िज़े को जगमगाता है
ज़ख़्म खाने के दिन गए लेकिन
उस से पूछे कोई चाहत के मज़े
शबाब-ए-दर्द मिरी ज़िंदगी की सुब्ह सही
आह! मर्ग-ए-आरज़ू का माजरा अब क्या कहूँ
अब वो सीना है मज़ार-ए-आरज़ू
फ़िदा-ए-मंज़िल-ए-बे-जादा हैं ख़ुदा रक्खे
ऐ सोज़-ए-जाँ-गुदाज़ अभी मैं जवान हूँ
झूमती है फ़ज़ा-ए-दश्त-ओ-जबल
सुब्ह की तनवीर बन कर आई वो नाज़ुक-ख़िराम
आफ़तों में घिर गया हूँ ज़ीस्त से बे-ज़ार हूँ