फूल सूँघे जाने क्या याद आ गया

फूल सूँघे जाने क्या याद आ गया

दिल अजब अंदाज़ से लहरा गया

उस से पूछे कोई चाहत के मज़े

जिस ने चाहा और जो चाहा गया

एक लम्हा बन के ऐश-ए-जावेदाँ

मेरी सारी ज़िंदगी पर छा गया

ग़ुंचा-ए-दिल हाए कैसा ग़ुंचा था

जो खिला और खिलते ही मुरझा गया

रो रहा हूँ मौसम-ए-गुल देख कर

मैं समझता था मुझे सब्र आ गया

ये हवा ये बर्ग-ए-गुल का एहतिज़ाज़

आज मैं राज़-ए-मुसर्रत पा गया

'अख़्तर' अब बरसात रुख़्सत हो गई

अब हमारा रात का रोना गया

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