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लुत्फ़ ले ले के पिए हैं क़दह-ए-ग़म क्या क्या - अख़्तर अंसारी कविता - Darsaal

लुत्फ़ ले ले के पिए हैं क़दह-ए-ग़म क्या क्या

लुत्फ़ ले ले के पिए हैं क़दह-ए-ग़म क्या क्या

हम ने फ़िरदौस बनाए हैं जहन्नम क्या क्या

आँसुओं को भी पिया जुरआ-ए-सहबा की तरह

साग़र-ओ-जाम बने दीदा-ए-पुर-नम क्या क्या

हल्क़ा-ए-दाम-ए-वफ़ा उक़्दा-ए-ग़म मौज-ए-नशात

ये ज़माना भी दिखाता है चम-ओ-ख़म क्या क्या

लज़्ज़त-ए-हिज्र कभी इशरत-ए-दीदार कभी

आरज़ू ने भी तबीअ'त को दिए दम क्या क्या

किस किस अंदाज़ से खटके रग-ए-गुल के नश्तर

तपिश-अफ़रोज़ हुए शोला-ओ-शबनम क्या क्या

शाम-ए-वीराँ की उदासी शब-ए-तीरा का सुकूत

दिल-ए-महज़ूँ को मिले हमदम ओ महरम क्या क्या

हाए वो आलम-ए-बे-नाम कि जिस आलम में

बीत जाते हैं दिल-ए-ज़ार पे आलिम क्या क्या

इस्मत ओ रिफ़अत-ए-अंजुम से ख़याल आता है

ख़ाक में रौंदी गई हुर्मत-ए-आदम क्या क्या

दब गए मिन्नत-ए-मज़दूर से ऐवाँ कितने

झुक गए ग़ैरत-ए-मफ़्तूह से परचम क्या किया

थे मुसल्लह ग़म-ए-माशूक़ से गो हम 'अख़्तर'

फिर भी दिखलाए ग़म-ए-दहर ने दम-ख़म क्या क्या

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