लुत्फ़ ले ले के पिए हैं क़दह-ए-ग़म क्या क्या
लुत्फ़ ले ले के पिए हैं क़दह-ए-ग़म क्या क्या
हम ने फ़िरदौस बनाए हैं जहन्नम क्या क्या
आँसुओं को भी पिया जुरआ-ए-सहबा की तरह
साग़र-ओ-जाम बने दीदा-ए-पुर-नम क्या क्या
हल्क़ा-ए-दाम-ए-वफ़ा उक़्दा-ए-ग़म मौज-ए-नशात
ये ज़माना भी दिखाता है चम-ओ-ख़म क्या क्या
लज़्ज़त-ए-हिज्र कभी इशरत-ए-दीदार कभी
आरज़ू ने भी तबीअ'त को दिए दम क्या क्या
किस किस अंदाज़ से खटके रग-ए-गुल के नश्तर
तपिश-अफ़रोज़ हुए शोला-ओ-शबनम क्या क्या
शाम-ए-वीराँ की उदासी शब-ए-तीरा का सुकूत
दिल-ए-महज़ूँ को मिले हमदम ओ महरम क्या क्या
हाए वो आलम-ए-बे-नाम कि जिस आलम में
बीत जाते हैं दिल-ए-ज़ार पे आलिम क्या क्या
इस्मत ओ रिफ़अत-ए-अंजुम से ख़याल आता है
ख़ाक में रौंदी गई हुर्मत-ए-आदम क्या क्या
दब गए मिन्नत-ए-मज़दूर से ऐवाँ कितने
झुक गए ग़ैरत-ए-मफ़्तूह से परचम क्या किया
थे मुसल्लह ग़म-ए-माशूक़ से गो हम 'अख़्तर'
फिर भी दिखलाए ग़म-ए-दहर ने दम-ख़म क्या क्या
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