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ख़िज़ाँ में आग लगाओ बहार के दिन हैं - अख़्तर अंसारी कविता - Darsaal

ख़िज़ाँ में आग लगाओ बहार के दिन हैं

ख़िज़ाँ में आग लगाओ बहार के दिन हैं

नए शगूफ़े खिलाओ बहार के दिन हैं

उलट दो तख़्ता ख़िज़ाँ की तबाह-कारी का

बिसात-ए-ऐश बिछाओ बहार के दिन हैं

एज़ार-ए-गुल की दहक से जला के काँटों को

लगी दिलों की बुझाओ बहार के दिन हैं

मिला के क़तरा-ए-शबनम में रंग ओ निकहत-ए-गुल

कोई शराब बनाओ बहार के दिन हैं

भरे कटोरे चमन के ये दर्स देते हैं

छलकते जाम लूंढाओ बहार के दिन हैं

अब एहतियात-पसंदी है सई-ए-ना-मशकूर

मता-ए-ज़ब्त लुटाओ बहार के दिन हैं

शरार-ए-गुल से ज़माने में शोले भड़का दो

हसीन फ़ित्ने जगाओ बहार के दिन हैं

जुनून-ए-शौक़ की बे-ए'तिदालियों के ख़िलाफ़

कोई दलील न लाओ बहार के दिन हैं

पुरानी शमएँ बुझा दीं सबा के झोंकों ने

नए चराग़ जलाओ बहार के दिन हैं

लचक रही है वफ़ूर-ए-समर से शाख़-ए-हयात

ये बार हँस के उठाओ बहार के दिन हैं

जनाब-ए-अख़तर-ए-जाँ-दादा-ए-रुख़-ए-गुल को

इमाम-ए-वक़्त बनाओ बहार के दिन हैं

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