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अपनी बहार पे हँसने वालो कितने चमन ख़ाशाक हुए - अख़्तर अंसारी कविता - Darsaal

अपनी बहार पे हँसने वालो कितने चमन ख़ाशाक हुए

अपनी बहार पे हँसने वालो कितने चमन ख़ाशाक हुए

अपने रफ़ू को गिनने वालो कितने गरेबाँ चाक हुए

दीवानों को कौन बताए आज की रस्म और आज की बात

इस ने उन्हीं की सम्त नज़र की इश्क़ में जो बेबाक हुए

शोबद-ए-यक तर्ज़-ए-करम है कैसी सज़ा और कैसी जज़ा

मौज-ए-तबस्सुम जब लहराई तर-दामन भी पाक हुए

रुख़ देखा जिस सम्त हवा का उस जानिब मुँह कर के चले

दश्त-ए-जुनूँ के दीवाने भी मिस्ल-ए-सबा चालाक हुए

ख़ाक-ए-नशेमन जब उड़ती है दिल से धुआँ सा उठता है

हादसे इस गुलज़ार में वर्ना और बहुत ग़मनाक हुए

देखते देखते दुनिया बदली गुलशन क्या वीराना क्या

पर्बत पर्बत नक़्श थे जिन के मिटते मिटते ख़ाक हुए

जान-ए-चमन जो गुल थे 'अख़्तर' वो तो हुए मा'तूब ओ ज़लील

ज़ेब-ए-गुलिस्ताँ रौनक़-ए-गुलशन कल के ख़स-ओ-ख़ाशाक हुए

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