चुप रहो तो पूछता है ख़ैर है
लो ख़मोशी भी शिकायत हो गई
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शाइरो हद्द-ए-क़दामत से निकल कर देखो
नज़र से सफ़्हा-ए-आलम पे ख़ूनीं दास्ताँ लिखिए
कौन सुनता है सिर्फ़ ज़ात की बात
ज़ुल्म सहते रहे शुक्र करते रहे आई लब तक न ये दास्ताँ आज तक
ज़िंदगी होगी मिरी ऐ ग़म-ए-दौराँ इक रोज़
रहने दे ये तंज़ के नश्तर अहल-ए-जुनूँ बेबाक नहीं
जाम ला जाम कि आलाम से जी डरता है
कोशिश-ए-पैहम को सई-ए-राएगाँ कहते रहो
फ़सुर्दा हो के मयख़ाने से निकले
लुटाओ जान तो बनती है बात किस ने कहा
ना जाने क़ाफ़िले पोशीदा किस ग़ुबार में हैं
सहारा दे नहीं सकते शिकस्ता पाँव को