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सहारा दे नहीं सकते शिकस्ता पाँव को - अख़्तर अंसारी अकबराबादी कविता - Darsaal

सहारा दे नहीं सकते शिकस्ता पाँव को

सहारा दे नहीं सकते शिकस्ता पाँव को

हटाओ राह-ए-मोहब्बत से रहनुमाओं को

बना रहा हूँ हसीं और मह-लक़ाओं को

सजा रहा हूँ मैं आफ़ाक़ की फ़ज़ाओं को

नज़र नज़र से मिलाता हूँ मुस्कुराता हूँ

जुनूँ की शान दिखाता हूँ दिल-रुबाओं को

क़दम क़दम पे नए इंक़लाब रक़्साँ हैं

दुआएँ देते हैं हम आप की अदाओं को

मिला जो दामन-ए-साहिल तो ऐसी मौज आई

सफ़ीने सौंप दिए हम ने ना-ख़ुदाओं को

निगाह फेरने वालों से पूछता हूँ मैं

तुम आज़माओगे कब तक मिरी वफ़ाओं को

अभी तो दश्त-ओ-दमन में बहार आई है

अभी चमन में खिलाने हैं गुल हवाओं को

चले हैं जानिब-ए-दार-ओ-रसन ख़राबाती

गुनह का रंग दिखाना है पारसाओं को

हर एक लम्हा-ए-नौ का अब एहतिराम करो

नया पयाम दो 'अख़्तर' नई फ़ज़ाओं को

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