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फ़ौजियों के सर तो दुश्मन के सिपाही ले गए - अख़लाक़ बन्दवी कविता - Darsaal

फ़ौजियों के सर तो दुश्मन के सिपाही ले गए

फ़ौजियों के सर तो दुश्मन के सिपाही ले गए

हाथ जो क़ीमत लगी ज़िल्ल-ए-इलाही ले गए

जुर्म मेरा सिर्फ़ इतना था कि मैं मुजरिम न था

क़ैद तक मुझ को सुबूत-ए-बे-गुनाही ले गए

अब वही दुनिया में ठहरे अम्न-ए-आलम के अमीं

जो अमाँ की जा तक असबाब-ए-तबाही ले गए

शिकवा-ए-जलवा-नुमाई सिर्फ़ उन के लब पे है

जो तिरी महफ़िल में अपनी कम-निगाही ले गए

तुम हरम से ले गए शब की सियाही और हम

मय-कदे से भी ज़िया-ए-सुब्ह-गाही ले गए

मैं इधर 'अख़लाक़' की तक़्सीम में मसरूफ़ था

लोग उधर मेरी अदा-ए-कज-कुलाही ले गए

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