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सुरूर - अख़लाक़ अहमद आहन कविता - Darsaal

सुरूर

देख के तुझ को ये आता है कि लिक्खूँ मैं ग़ज़ल

सोचता हूँ मैं यही फिर कि ज़रूरत क्या है

हुस्न पे तेरे ये रानाई तिरी शान जो है

ये तिरी ज़ुल्फ़ों में ख़म जो है सरापे की शबीह

तेरे नैनों की कजी जो है अदाओं पे उरूज

सुर्ख़ी-ए-लब कि जो मज़बह है तमन्नाओं का

तेरा जोबन कि जो शर्मिंदा-ए-सद-फ़ित्ना है

शुक्रिया तेरे हुज़ूरी का बयाँ कैसे हो

जिस की मस्ती में मुक़य्यद हैं सभी के अज़हान

शे'र-ओ-नग़मे इसी सरशारी के दो-गाने हैं

तुम तो ख़ुद ही हो ग़ज़ल जिस पे तग़ज़्ज़ुल है निसार

और उसे पढ़ना जो चाहूँ तो न इस का इत्माम

और लफ़्ज़ों में उतारूँ तो हर इक लफ़्ज़-ए-सुरूर

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