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मक़्तल - अख़लाक़ अहमद आहन कविता - Darsaal

मक़्तल

मेरे सीने पे सर रख के रोती रही

मेरी पलकों से पलकें भिगोती रही

मैं भी रोता रहा

मेरे सीने पे सर रख के सोती रही

मैं भी सोता रहा

मेरी आँखों में कुछ ढूँढती सी रही

मैं भी देखा किया

ख़ामुशी के हिजाबों में हलचल रही

मैं खड़ा पुर-सुकूँ बुत तड़पता रहा

वक़्त-ओ-हालात फिर दरमियाँ आ गए

दूर होते गए

फिर ख़ुदा हाफ़िज़

फिर जुदा हो गए

फिर तसव्वुर की दुनिया

मसाफ़त की अड़चन

वही वक़्त-ओ-हालात की बंदिशें

दो धड़कते दिलों आरज़ुओं को

दुनिया ने मक़्तल में अपने

किया है तह-ए-तेग़

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