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वह शक्ल वह शनाख़्त वह पैकर की आरज़ू - अखिलेश तिवारी कविता - Darsaal

वह शक्ल वह शनाख़्त वह पैकर की आरज़ू

वह शक्ल वह शनाख़्त वह पैकर की आरज़ू

पत्थर की हो के रह गई पत्थर की आरज़ू

छत हो फ़लक तो ख़ाक उड़ाने को पाँव में

सहरा में खींचती है हमें घर की आरज़ू

ज़ख़्मी किए हैं पाँव कभी लाई राह पर

कब कौन जान पाया है ठोकर की आरज़ू

अपनी गिरफ़्त में लिए उड़ता फिरे कहीं

पर्वाज़ को है कब से उसी पर की आरज़ू

रहती है मुझ में कब से कुँवारी है आज तक

इक आरज़ू के अपने स्वयंवर की आरज़ू

'अखिलेश' कब बुझी है हवस की शदीद प्यास

दरिया तमाम पी ले समुंदर की आरज़ू

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