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वहम ही होगा मगर रोज़ कहाँ होता है - अखिलेश तिवारी कविता - Darsaal

वहम ही होगा मगर रोज़ कहाँ होता है

वहम ही होगा मगर रोज़ कहाँ होता है

धुंध छाई है तो इक चेहरा अयाँ होता है

शाम ख़ुश-रंग परिंदों के चहक जाने से

घर हुआ जाता है दिन में जो मकाँ होता है

वो कोई जज़्बा हो अल्फ़ाज़ का मोहताज नहीं

कुछ न कहना भी ख़ुद अपनी ही ज़बाँ होता है

बे-सबब कुछ भी नहीं होता है या यूँ कहिए

आग लगती है कहीं पर तो धुआँ होता है

बाज़-गश्त और सदाओं की उभर आती है

जितना ख़ाली कोई 'अखिलेश' कुआँ होता है

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