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किसे जाना कहाँ है मुनहसिर होता है इस पर भी - अखिलेश तिवारी कविता - Darsaal

किसे जाना कहाँ है मुनहसिर होता है इस पर भी

किसे जाना कहाँ है मुनहसिर होता है इस पर भी

भटकता है कोई बाहर तो कोई घर के भीतर भी

किसी को आस बादल से कोई दरियाओं का तालिब

अगर है तिश्ना-लब सहरा तो प्यासा है समुंदर भी

शिकस्ता ख़्वाब की किर्चें पड़ी हैं आँख में शायद

नज़र में चुभता है जब तब अधूरा सा वो मंज़र भी

सुराग़ इस से ही लग जाए मिरे होने न होने का

गुज़र कर देख ही लेता हूँ अपने में से हो कर भी

जिसे परछाईं समझे थे हक़ीक़त में न पैकर हो

परखना चाहिए था आप को उस शय को छू कर भी

पलट कर मुद्दतों बअ'द अपनी तहरीरों से गुज़रूँ तो

लगे अक्सर कि हो सकता था इस से और बेहतर भी

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