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काग़ज़ प हर्फ़ हर्फ़ निखर जाना चाहिए - अखिलेश तिवारी कविता - Darsaal

काग़ज़ प हर्फ़ हर्फ़ निखर जाना चाहिए

काग़ज़ प हर्फ़ हर्फ़ निखर जाना चाहिए

बे-चेहरगी को रंग में भर जाना चाहिए

मुमकिन है आसमान का रस्ता इन्हीं से हो

नीले समुंदरों में उतर जाना चाहिए

हर-दम बदन की क़ैद का रोना फ़ुज़ूल है

मौसम सदाएँ दे तो बिखर जाना चाहिए

सहरा में कौन भीक किसे देगा छाँव की

ख़ुद अपनी ओट में ही ठहर जाना चाहिए

तन्हा सफ़र में रात के इस पिछले वक़्त में

आवाज़ कोई दे तो किधर जाना चाहिए

जिस से बिछड़ के हो गए सहरा-नवर्द हम

अब तक तो उस के ज़ख़्म भी भर जाना चाहिए

पानी को रोकती हो जो 'अखिलेश'-जी अना

ख़ुद प्यास को नदी में उतर जाना चाहिए

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