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हँसना रोना पाना खोना मरना जीना पानी पर - अखिलेश तिवारी कविता - Darsaal

हँसना रोना पाना खोना मरना जीना पानी पर

हँसना रोना पाना खोना मरना जीना पानी पर

पढ़िए तो क्या क्या लिक्खा है दरिया की पेशानी पर

महँगाई है दाम मिलेंगे सोचा था हम ने लेकिन

शर्मिंदा हो कर लौटे हैं ख़्वाबों की अर्ज़ानी पर

अब तक उजड़े-पन में शायद कुछ नज़्ज़ारों लाएक़ है

वर्ना जमघट क्यूँ उमडा रहता है इस वीरानी पर

रात जो आँखों में चमके जुगनू मैं उन का शाहिद हूँ

आप भले चर्चा करिए अब सूरज की ताबानी पर

सुब्ह-सवेरा दफ़्तर बीवी बच्चे महफ़िल नींदें रात

यार किसी को मुश्किल भी होती है इस आसानी पर

उस की सपनों वाली परियाँ क्यूँ मैं देख नहीं पाता

बच्चा हैराँ है मुझ पर मैं बच्चे की हैरानी पर

एक अछूता मंज़र मुझ को छू कर गुज़रा था अब तो

पछताना है ख़ुद में डूबे रहने की नादानी पर

हम फ़नकारों की फ़ितरत से वाक़िफ़ हो तुम तो 'अखिलेश'

मक़्सद समझो रुक मत जाना बस लफ़्ज़ों के मअनी पर

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