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जुनून-ए-इश्क़ का जो कुछ हुआ अंजाम क्या कहिए - अख़गर मुशताक़ रहीमाबादी कविता - Darsaal

जुनून-ए-इश्क़ का जो कुछ हुआ अंजाम क्या कहिए

जुनून-ए-इश्क़ का जो कुछ हुआ अंजाम क्या कहिए

किसी से अब ये रूदाद-ए-दिल-ए-नाकाम क्या कहिए

फिरी क्यूँ कर निगाह-ए-साक़ी-ए-गुलफ़ाम क्या कहिए

भरी महफ़िल में अस्बाब-ए-शिकस्त-ए-जाम क्या कहिए

ये कैसी दिल में है इक ज़ुल्मत-ए-बे-नाम क्या कहिए

बुझा क्यूँ दफ़अ'तन अज़-ख़ुद चराग़-ए-शाम क्या कहिए

तग़ाफ़ुल पर वो दो हर्फ़-ए-शिकायत भी क़यामत थे

ज़माने भर के हम पर आ गए इल्ज़ाम क्या कहिए

मिरा दर्द-ए-निहाँ भी आज रुस्वा-ए-ज़माना है

इक आह-ए-ज़ेर-ए-लब भी बन गई दुश्नाम क्या कहिए

दर-ओ-दीवार पर छाए हुए हैं यास के मंज़र

दयार-ए-नामुरादी के ये सुब्ह-ओ-शाम क्या कहिए

जहान-ए-आरज़ू भी रफ़्ता रफ़्ता हो चला वीराँ

इक आग़ाज़-ए-हसीं का आह ये अंजाम क्या कहिए

उमीद-ओ-यास में ये रोज़-ओ-शब की कश्मकश तौबा

ब-हर-लम्हा फ़रेब-ए-गर्दिश-ए-अय्याम क्या कहिए

ये किस के दर से ता'ने मिल रहे हैं सज्दा-ओ-सर को

ये किस दर पर है ज़ौक़-ए-बंदगी बदनाम क्या कहिए

कहाँ का शिकवा-ए-ग़म हम तो बस शुक्र-ए-सितम करते

मगर शुक्र-ए-सितम का भी है जो अंजाम क्या कहिए

अदा-ए-बद-गुमानी भी सरिश्त-ए-इश्क़ है लेकिन

ये क्यूँ कर बन गई मिनजुमला-ए-इल्ज़ाम क्या कहिए

रहेंगे हश्र तक मम्नून-ए-एहसान-ए-दिल-आज़ारी

ख़ुलूस-ए-इश्क़ पर ये क़ीमती इनआ'म क्या कहिए

बढ़ी जाती है अब तो और भी कुछ दूरी-ए-मंज़िल

अचानक नौ-ब-नौ-दुश्वारी-हर-गाम क्या कहिए

वो अपनी सई-ए-तजदीद-ए-जुनूँ भी राएगाँ ठहरी

बस अब आगे मआल-ए-हसरत-ए-नाकाम क्या कहिए

न समझे आज तक रंग-ए-मिज़़ाज-ए-यार-ए-बे-परवा

मगर फिर भी ज़बाँ पर है उसी का नाम क्या कहिए

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