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इतना भी नहीं करते इंकार चले आओ - अख़गर मुशताक़ रहीमाबादी कविता - Darsaal

इतना भी नहीं करते इंकार चले आओ

इतना भी नहीं करते इंकार चले आओ

सौ बार बुलाया है इक बार चले आओ

हों फ़ासले नक़्शों के या फ़र्क़ हों शहरों के

दिल से तो नहीं दूरी सरकार चले आओ

इक मुंतज़िर-ए-वादा बेदार तो है कब से

हो जाए मुक़द्दर भी बेदार चले आओ

अंदेशा-ए-रुस्वाई क्यूँ राह में हाइल हो

कर लेंगे ज़माने को हमवार चले आओ

ता-चंद वही रंजिश लिल्लाह इधर देखो

लो जुर्म का करते हैं इक़रार चले आओ

बे-कैफ़ी-ए-मौसम का ये उज़्र है बे-मा'नी

लग जाएँगे फूलों के अम्बार चले आओ

इस आबला-पाई में ख़ारों की शिकायत क्या

कुछ ख़ार भी हैं आख़िर हक़दार चले आओ

जब चल ही पड़े 'अख़्गर' फिर फ़िक्र कोई कैसी

जिस तरह बने अब तो सरकार चले आओ

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