मैं किसी और ही आलम का मकीं हूँ प्यारे
मेरे जंगल की तरह घर भी है सुनसान मिरा
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उस ख़ुश-अदा के आइना-ख़ाने में जाऊँगा
अब तुझे मेरा नाम याद नहीं
ऐसा एक मक़ाम हो जिस में दिल जैसी वीरानी हो
ये सारी धूल मिरी है ये सब ग़ुबार मिरा
वो और होंगे जो कार-ए-हवस पे ज़िंदा हैं
ख़ुद से निकलूँ भी तो रस्ता नहीं आसान मिरा
ख़्वाब आराम नहीं ख़्वाब परेशानी है
अब भी अक्सर ध्यान तुम्हारा आता है
जिस के बग़ैर जी नहीं सकते थे जा चुका
रह जाएगी ये सारी कहानी यहीं धरी