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नींद में गुनगुना रहा हूँ मैं - अकबर मासूम कविता - Darsaal

नींद में गुनगुना रहा हूँ मैं

नींद में गुनगुना रहा हूँ मैं

ख़्वाब की धुन बना रहा हूँ मैं

एक मुद्दत से बाग़ दुनिया का

अपने दिल में लगा रहा हूँ मैं

क्या बताऊँ तुम्हें वो शहर था क्या

जिस की आब ओ हवा रहा हूँ मैं

अब तुझे मेरा नाम याद नहीं

जब कि तेरा पता रहा हूँ मैं

आज कल तो किसी सदा की तरह

अपने अंदर से आ रहा हूँ मैं

ऐसा मुर्दा था मैं कि जीने के

ख़ौफ़ में मुब्तला रहा हूँ मैं

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