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लुटाऊँ मस्तियाँ सरसब्ज़ रहगुज़र की तरह - अकबर काज़मी कविता - Darsaal

लुटाऊँ मस्तियाँ सरसब्ज़ रहगुज़र की तरह

लुटाऊँ मस्तियाँ सरसब्ज़ रहगुज़र की तरह

दिलों को राहतें बख़्शूँ हरे शजर की तरह

करे वो रात की मानिंद दाग़ दाग़ मुझे

मैं रंग रंग करूँगा उसे सहर की तरह

वो धूप है कि हवा फूल है कि शबनम है

कभी तो देख उसे साहिब-ए-नज़र की तरह

वो बेवफ़ा मुझे दिल से निकाल कर देखे

मैं उस के ज़ेहन में तड़पूँ सदा शरर की तरह

ये रोज़-ओ-शब का तसलसुल बता रहा है मुझे

है बे-क़रार मशिय्यत अभी बशर की तरह

पयम्बरों के सहीफ़े हैं ए'तिमाद मिरा

जहान-ए-ज़ीस्त में फैलुँगा बहर-ओ-बर की तरह

सितम है 'काज़मी' घर में भी अब सभी लम्हे

गराँ गुज़रते हैं एहसास पर सफ़र की तरह

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