नफ़रत की हवा बन में चलाई किस ने
जल उट्ठी ज़मीं आग लगाई किस ने
उठती हैं जहाँ की उँगलियाँ किस की तरफ़
याँ जीत के हारी है लड़ाई किस ने
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मंजधार में हूँ पास किनारा भी नहीं
हर दुकाँ अपनी जगह हैरत-ए-नज़्ज़ारा है
ज़िंदान-ए-सुब्ह-ओ-शाम में तू भी है मैं भी हूँ
सितम-ज़दा कई बशर क़दम क़दम पे थे
जब सुब्ह की दहलीज़ पे बाज़ार लगेगा
ख़ुद-परस्ती ख़ुदा न बन जाए
दिल दबा जाता है कितना आज ग़म के बार से
निगह-ए-शौक़ से हुस्न-ए-गुल-ओ-गुलज़ार तो देख
हिम्मत वाले पल में बदल देते हैं दुनिया को
हिसार-अंदर-हिसार
क़ब्र-ए-दर-ओ-दीवार से आगे निकले