कब फ़िक्र-ओ-ख़याल का असासा कम है
लिक्खा है बहुत लोगों ने सोचा कम है
हर चंद कमी नहीं है लफ़्ज़ों की मगर
लफ़्ज़ों के बरतने का सलीक़ा कम है
Allama Iqbal
Anwar Masood
Ahmad Faraz
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Faiz Ahmad Faiz
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Gulzar
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किस नहज से हम ने इक कहानी कह दी
बर्बाद सुकून-दर-ओ-दीवार न हो
नफ़रत की हवा बन में चलाई किस ने
हर दुकाँ अपनी जगह हैरत-ए-नज़्ज़ारा है
मंजधार में हूँ पास किनारा भी नहीं
सर बस्ता हयात ज़ात गुंजान मिरी
मुसाफ़िरत का वलवला सियाहतों का मश्ग़ला
अजल सराए तीरगी
बदन से रिश्ता-ए-जाँ मो'तबर न था मेरा
रुत बदली तो ज़मीं के चेहरे का ग़ाज़ा भी बदला
घुटन अज़ाब-ए-बदन की न मेरी जान में ला
रस्ते ही में हो जाती हैं बातें बस दो-चार