दुनिया कभी हो सकी न हमराज़ मरी
क्या जाने थी किस फ़ज़ा में पर्वाज़ मिरी
लहजा मैं किसी और का अपना न सका
ले डूबी मुझे मुनफ़रिद आवाज़ मिरी
Javed Akhtar
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आँखों को देखने का सलीक़ा जब आ गया
दिल दबा जाता है कितना आज ग़म के बार से
छोड़ के माल-ओ-दौलत सारी दुनिया में अपनी
अजल सराए तीरगी
ज़िंदान-ए-सुब्ह-ओ-शाम में तू भी है मैं भी हूँ
बे-साल-ओ-सिन ज़मानों में फैले हुए हैं हम
नए ख़ौफ़ का आज़ार
ख़ुद-परस्ती ख़ुदा न बन जाए
हर्फ़-ए-यक़ीं
फ़ित्ने अजब तरह के समन-ज़ार से उठे
दुनिया कभी हो सकी न हमराज़ मिरी
कुल आलम-ए-वुजूद कि इक दश्त-ए-नूर था