न जाने कितनी बस्तियाँ उजड़ के रह गईं
मिले हैं रास्ते में कुछ मकाँ जले जले
Wasi Shah
Allama Iqbal
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Gulzar
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Rahat Indori
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Habib Jalib
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कब फ़िक्र-ओ-ख़याल का असासा कम है
सर बस्ता हयात ज़ात गुंजान मिरी
बस इक तसलसुल-ए-तकरार-ए-क़ुर्ब-ओ-दूरी था
वारिस
फ़ित्ने अजब तरह के समन-ज़ार से उठे
हर शय ब हर अंदाज़ अलग होती है
किस नहज से हम ने इक कहानी कह दी
बे-साल-ओ-सिन ज़मानों में फैले हुए हैं हम
ज़िंदान-ए-सुब्ह-ओ-शाम में तू भी है मैं भी हूँ
मुबहम थे सब नुक़ूश नक़ाबों की धुँद में
चराग़-ए-राहगुज़र लाख ताबनाक सही
मुसाफ़िरत का वलवला सियाहतों का मश्ग़ला