मुबहम थे सब नुक़ूश नक़ाबों की धुँद में
चेहरा इक और भी पस-ए-चेहरा ज़रूर था
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आँख में आँसू का और दिल में लहू का काल है
न जाने कितनी बस्तियाँ उजड़ के रह गईं
अता हुई किसे सनद नज़र नज़र की बात है
बदन से रिश्ता-ए-जाँ मो'तबर न था मेरा
क़ब्र-ए-दर-ओ-दीवार से आगे निकले
आँखों को देखने का सलीक़ा जब आ गया
रस्ते ही में हो जाती हैं बातें बस दो-चार
कुल आलम-ए-वुजूद कि इक दश्त-ए-नूर था
मिलता नहीं मुझ को नक़्श अपना मुझ में
वो पास हो के दूर है तो दूर हो के पास
दिल दबा जाता है कितना आज ग़म के बार से
चराग़-ए-राहगुज़र लाख ताबनाक सही