ख़ुद-परस्ती ख़ुदा न बन जाए
एहतियातन गुनाह करता हूँ
Mohsin Naqvi
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Gulzar
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मुश्किल ही से कर लेती है दुनिया उसे क़ुबूल
मंजधार में हूँ पास किनारा भी नहीं
मुसाफ़िरत का वलवला सियाहतों का मश्ग़ला
नए ख़ौफ़ का आज़ार
मिरी शिकस्त भी थी मेरी ज़ात से मंसूब
वारिस
जिन पे अजल तारी थी उन को ज़िंदा करता है
निगह-ए-शौक़ से हुस्न-ए-गुल-ओ-गुलज़ार तो देख
ज़िंदान-ए-सुब्ह-ओ-शाम में तू भी है मैं भी हूँ
दिल दबा जाता है कितना आज ग़म के बार से
ख़ालिक़ और तख़्लीक़