चराग़-ए-राहगुज़र लाख ताबनाक सही
जला के अपना दिया रौशनी मकान में ला
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हाँ यही शहर मिरे ख़्वाबों का गहवारा था
वारिस
फ़ित्ने अजब तरह के समन-ज़ार से उठे
नफ़रत की हवा बन में चलाई किस ने
हर दुकाँ अपनी जगह हैरत-ए-नज़्ज़ारा है
कब फ़िक्र-ओ-ख़याल का असासा कम है
आँख में आँसू का और दिल में लहू का काल है
नए ख़ौफ़ का आज़ार
जब सुब्ह की दहलीज़ पे बाज़ार लगेगा
वो पास हो के दूर है तो दूर हो के पास
लबों पर तबस्सुम तो आँखों में आँसू थी धूप एक पल में तो इक पल में बारिश