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वारिस - अकबर हैदराबादी कविता - Darsaal

वारिस

वो एब्नॉर्मल नहीं था

सिर्फ़ उस को नॉर्मल बनने की हसरत थी

कई ख़ानों में उस की ज़िंदगी बटने लगी थी

वो अपनी कोशिश-ए-ना-मो'तबर से तंग आ कर

नीम-जाँ हो कर

एक ख़ाने में पनह लेने लगा था

बनी आमाज-गाह-ए-तीर-ए-नफ़रत शख़्सियत उस की

उसे भी ख़ुद से नफ़रत हो चुकी थी

मगर इस नफ़रत-ए-मानूस की तकरार से उस ने

दुरुश्त ओ ना-मुवाफ़िक़ ज़िंदगी से सुल्ह कर ली थी

यही था कीसा-ए-अख़्लाक़ उस का

ग़रीबी ने शराफ़त छीन ली थी

और उस की शख़्सियत के पैरहन में

गुहर-बारों के बदले संग-रेज़े जड़ दिए थे

वो एब्नॉर्मल नहीं था

मगर अब उस में ख़ुद को नॉर्मल करने का यारा भी नहीं था

उसे अब ये गवारा भी नहीं था

गली-कूचों की सारी गंदगी का

तीरगी का

वो अब हक़दार वारिस बन चुका था

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