हिसार-अंदर-हिसार

मेरे इर्द-गर्द इक हिसार है

इक हिसार जिस के गीर-ओ-दार मैं

बे-अमाँ ग़ुबार में

मेरा जिस्म मेरी ज़ात

तार तार है

वक़्त एक लफ़्ज़ जो

असीर अपने मानवी बहिश्त में

वक़्त इक तसलसुल-ए-ख़याल जिस के दूसरे

इक ख़ला-ए-बे-कराँ की जाँ-कशाँ गिरफ़्त है

इस हिसार से अगर निकल सकूँ

(जिस्म मुंजमिद चटान बर्फ़ की मैं अगर पिघल सकूँ)

रेज़ा रेज़ा जिस्म को समेट कर

इक वजूद-ए-ताज़ा-तर में ढल सकूँ

फिर न जाने कौन सा ग़ुबार मुझ को घेर ले

कौन सा हिसार मुझ को घेर ले

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