मैं घुप अंधेरे में जा छुपा था
कि रौशनी मेरी जाँ की बैरी
मिरा तआक़ुब न करने पाए
मगर अंधेरे
गुरसना-जाँ अन्कबूत की शातिरी दिखा कर
मुझे नहीफ़-ओ-नज़ार पा कर
ख़ुद अपने जाले में कस के मेरे बदन को मिस्मार कर चुके थे!
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मुसाफ़िरत का वलवला सियाहतों का मश्ग़ला
हिम्मत वाले पल में बदल देते हैं दुनिया को
हर्फ़-ए-यक़ीं
जिन के नसीब में आब-ओ-दाना कम कम होता है
किस नहज से हम ने इक कहानी कह दी
दुनिया कभी हो सकी न हमराज़ मिरी
फ़ित्ने अजब तरह के समन-ज़ार से उठे
दिल दबा जाता है कितना आज ग़म के बार से
रस्ते ही में हो जाती हैं बातें बस दो-चार
लबों पर तबस्सुम तो आँखों में आँसू थी धूप एक पल में तो इक पल में बारिश
पहुँच के जो सर-ए-मंज़िल बिछड़ गया मुझ से
ख़ुद-परस्ती ख़ुदा न बन जाए