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ज़िंदान-ए-सुब्ह-ओ-शाम में तू भी है मैं भी हूँ - अकबर हैदराबादी कविता - Darsaal

ज़िंदान-ए-सुब्ह-ओ-शाम में तू भी है मैं भी हूँ

ज़िंदान-ए-सुब्ह-ओ-शाम में तू भी है मैं भी हूँ

इक गर्दिश-ए-मुदाम में तू भी है मैं भी हूँ

बे-फ़र्श-ओ-बाम सिलसिला-ए-काएनात के

इस बे-सुतूँ निज़ाम में तू भी है मैं भी हूँ

बे-साल-ओ-सिन ज़मानों में फैले हुए हैं हम

बे-रंग-ओ-नस्ल नाम में तू भी है मैं भी हूँ

इस दाइमी हिसार में हम को मफ़र कहाँ

ज़र्रों के अज़दहाम में तू भी है मैं भी हूँ

हर तीरा-फ़ाम सुब्ह का विर्सा है मुश्तरक

हर नूर-दीदा शाम में तू भी है मैं भी हूँ

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