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सितम-ज़दा कई बशर क़दम क़दम पे थे - अकबर हैदराबादी कविता - Darsaal

सितम-ज़दा कई बशर क़दम क़दम पे थे

सितम-ज़दा कई बशर क़दम क़दम पे थे

शिकस्ता दिल शिकस्ता घर क़दम क़दम पे थे

मिले हैं रहज़नों की सफ़ में वो भी आख़िरश

शरीक-ए-रह जो राहबर क़दम क़दम पे थे

हुआ गुज़र हमारा कैसे शहर-ए-इल्म में

कि नुक्ता-दाँ ओ दीदा-वर क़दम क़दम पे थे

है क्या अजब कि ख़्वाब था वो मंज़र-ए-हसीं

हज़ारों लोग ख़ुश-नज़र क़दम क़दम पे थे

थे जौक़ जौक़ आस-पास कर्गस ओ उक़ाब

परिंद कुछ शिकस्ता-पर क़दम क़दम पे थे

हमारा 'अकबर' एक ही ख़ुदा था और बस!

निसार बुत-परस्त गो सनम सनम पे थे

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