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निगह-ए-शौक़ से हुस्न-ए-गुल-ओ-गुलज़ार तो देख - अकबर हैदराबादी कविता - Darsaal

निगह-ए-शौक़ से हुस्न-ए-गुल-ओ-गुलज़ार तो देख

निगह-ए-शौक़ से हुस्न-ए-गुल-ओ-गुलज़ार तो देख

आँखें खुल जाएँगी ये मंज़र-ए-दिलदार तो देख

पैकर-ए-शाहिद-ए-हस्ती में है इक आँच नई

लज़्ज़त-ए-दीद उठा शोला-ए-रुख़्सार तो देख

शोख़ी-ए-नक़्श कोई हादसा-ए-वक़्त नहीं

मोजज़ा-कारी-ए-ख़ून-ए-दिल-ए-फ़नकार तो देख

हर दुकाँ अपनी जगह हैरत-ए-नज़्ज़ारा है

फ़िक्र-ए-इंसाँ के सजाए हुए बाज़ार तो देख

बन गए गर्द-ए-सफ़र क़ाफ़िले आवाज़ों के

आदम-ए-नौ की ज़रा गर्मी-ए-रफ़्तार तो देख

मुंक़लिब हो गया पैमाना-ए-हर-पस्त-ओ-बुलंद

देख कर अपनी तरफ़ जानिब-ए-कोहसार तो देख

नए आहंग से अब नग़्मा-सरा है 'अकबर'

फ़िक्र के साथ ज़रा शोख़ी-ए-गुफ़्तार तो देख

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