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जब सुब्ह की दहलीज़ पे बाज़ार लगेगा - अकबर हैदराबादी कविता - Darsaal

जब सुब्ह की दहलीज़ पे बाज़ार लगेगा

जब सुब्ह की दहलीज़ पे बाज़ार लगेगा

हर मंज़र-ए-शब ख़्वाब की दीवार लगेगा

पल भर में बिखर जाएँगे यादों के ज़ख़ीरे

जब ज़ेहन पे इक संग-ए-गिराँ-बार लगेगा

गूँधे हैं नई शब ने सितारों के नए हार

कब घर मिरा आईना-ए-अनवार लगेगा

गर सैल-ए-ख़ुराफ़ात में बह जाएँ ये आँखें

हर हर्फ़-ए-यक़ीं कलमा-ए-इंकार लगेगा

हालात न बदले तो तमन्ना की ज़मीं पर

टूटी हुई उम्मीदों का अम्बार लगेगा

खिलते रहे गर फूल लहू में यूँही 'अकबर'

हर फ़स्ल में दिल अपना समन-ज़ार लगेगा

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